सलोक भगत कबीर जीउ के (श्री गुरुग्रंथ साहब ;सलोक २९ -३२ )
कबीर मरता मरता जगु मूआ मरि भी न जानिआ कोइ ,
ऐसे मरने जो मरै बहुरि न मरना होइ।
कबीर मानस जनमु दुलम्भु है होइ न बारैबार ,
जिउ बन फल पाके भुइ गिरहि बहुरि न लागहि डार।
कबीरा तुही कबीर तू तेरो नाउ कबीर ,
राम रत्न तब पाईऐ जउ पहिले तजहि सरीरु।
कबीर झंखु न झंखीऐ तुमरो कहिओ होइ ,
करम करीम जु करि रहे मेटि न साकै कोइ।
भावार्थ : कबीर जी कहते हैं कि मरते -मरते सब जगत मर रहा है ,फिर भी मरने का रहस्य किसी ने नहीं जाना। असल मरना होता क्या है ?अंतिम मृत्यु क्या है जो फिर काल चक्र से बंधन टूटे?
जीते जी मरजाता है आशा -तृष्णा रुपी लड़के लड़कियों का त्याग कर देता है ,अलिप्त रहता है इन्हें पालते पोसते ,स्थिर चित्त रहता है सिमरन में सुखदुःख से विचलित नहीं होता जिसके लिए ये दो चीज़ें हैं ही नहीं ,हर चीज़ जोड़े में है जैसे दिन और रात ,सर्दी गर्मी आदि जो ये जान लेता है वह मरजीवा हो जाता है मरने से पहले शरीर (माया )से मर जाता है। ये शरीर माया ही तो है। इसमें निवास करने वाला सूक्ष्म तत्व ही आत्मा है ,वही परमात्मा है। वही असल मैं हूँ ,तू है।
जो ये जानलेता है संसार चक्र से आवाजाही जन्म मृत्यु के फेरों से मुक्त हो जाता है।
मनुष्य जन्म दुर्लभ है यह नसीबों वालों को ही नसीब होता है बार -बार नहीं मिलता ,चौरासी लाख यौनियाँ भुगतानी पड़तीं हैं ,यह वैसे ही है जैसे बन में फल पक-पककर एक बार धरती पर गिर जाए ,तो दोबारा पेड़ पर नहीं लगता।
अन्यत्र कबीर कहते हैं :
पत्ता बोला वृक्ष से सुनो वृक्ष वनराय ,
अब के पतझर न मिलै दूर पड़ेंगे जाय।
वृक्ष बोला पात से ,सुनो पात एक बात
या घर याहि रीति है ,एक आवत एक जात .
इसीलिए कबीर यह भी कहते हैं :
सांस सांस में नाम ले ,बचे सांस न कोय ,
क्या जाने फिर सांस का आवन होय न होय.
इ दम दा मेनू की वे भरोसा ,
आया आया न आया न आया।
इसलिए कबीर कहते हैं कबीर और परमात्मा में अभेद है द्वैत नहीं हैं , अद्वैत है। यह अद्वैत भाव ,माया से इसके कुनबे से मोह त्याग के बाद ही मिलता है। माया का शरीर छूटे तो रामरतन धन मिले। आत्मा परमात्मा में लीन हो। प्राणि अभेदत्व को दोनों के जाने।
आखिर में यहां कबीर कहते हैं :बातें बघारने से कुछ नहीं होता। बातें न बघारो। वह कृपालु ,दयालु परमात्मा जो कर रहा है उसे कोई नहीं रोक सकता।जो भी होता है हुआ है आगे भी होगा सब उसका करम (रहम) ही होगा। सब कुछ 'होना' ही 'होना' है अनहोना कुछ नहीं है।जो हुआ है वह अनहोनी कैसे हो सकता है। यहां कबीर जीवन में जो भी घटित हो रहा है उसकी स्वीकृति की ओर संकेत करते हैं।
https://www.youtube.com/watch?v=bqcliaGTQZo
कबीर मरता मरता जगु मूआ मरि भी न जानिआ कोइ ,
ऐसे मरने जो मरै बहुरि न मरना होइ।
कबीर मानस जनमु दुलम्भु है होइ न बारैबार ,
जिउ बन फल पाके भुइ गिरहि बहुरि न लागहि डार।
कबीरा तुही कबीर तू तेरो नाउ कबीर ,
राम रत्न तब पाईऐ जउ पहिले तजहि सरीरु।
कबीर झंखु न झंखीऐ तुमरो कहिओ होइ ,
करम करीम जु करि रहे मेटि न साकै कोइ।
भावार्थ : कबीर जी कहते हैं कि मरते -मरते सब जगत मर रहा है ,फिर भी मरने का रहस्य किसी ने नहीं जाना। असल मरना होता क्या है ?अंतिम मृत्यु क्या है जो फिर काल चक्र से बंधन टूटे?
जीते जी मरजाता है आशा -तृष्णा रुपी लड़के लड़कियों का त्याग कर देता है ,अलिप्त रहता है इन्हें पालते पोसते ,स्थिर चित्त रहता है सिमरन में सुखदुःख से विचलित नहीं होता जिसके लिए ये दो चीज़ें हैं ही नहीं ,हर चीज़ जोड़े में है जैसे दिन और रात ,सर्दी गर्मी आदि जो ये जान लेता है वह मरजीवा हो जाता है मरने से पहले शरीर (माया )से मर जाता है। ये शरीर माया ही तो है। इसमें निवास करने वाला सूक्ष्म तत्व ही आत्मा है ,वही परमात्मा है। वही असल मैं हूँ ,तू है।
जो ये जानलेता है संसार चक्र से आवाजाही जन्म मृत्यु के फेरों से मुक्त हो जाता है।
मनुष्य जन्म दुर्लभ है यह नसीबों वालों को ही नसीब होता है बार -बार नहीं मिलता ,चौरासी लाख यौनियाँ भुगतानी पड़तीं हैं ,यह वैसे ही है जैसे बन में फल पक-पककर एक बार धरती पर गिर जाए ,तो दोबारा पेड़ पर नहीं लगता।
अन्यत्र कबीर कहते हैं :
पत्ता बोला वृक्ष से सुनो वृक्ष वनराय ,
अब के पतझर न मिलै दूर पड़ेंगे जाय।
वृक्ष बोला पात से ,सुनो पात एक बात
या घर याहि रीति है ,एक आवत एक जात .
इसीलिए कबीर यह भी कहते हैं :
सांस सांस में नाम ले ,बचे सांस न कोय ,
क्या जाने फिर सांस का आवन होय न होय.
इ दम दा मेनू की वे भरोसा ,
आया आया न आया न आया।
इसलिए कबीर कहते हैं कबीर और परमात्मा में अभेद है द्वैत नहीं हैं , अद्वैत है। यह अद्वैत भाव ,माया से इसके कुनबे से मोह त्याग के बाद ही मिलता है। माया का शरीर छूटे तो रामरतन धन मिले। आत्मा परमात्मा में लीन हो। प्राणि अभेदत्व को दोनों के जाने।
आखिर में यहां कबीर कहते हैं :बातें बघारने से कुछ नहीं होता। बातें न बघारो। वह कृपालु ,दयालु परमात्मा जो कर रहा है उसे कोई नहीं रोक सकता।जो भी होता है हुआ है आगे भी होगा सब उसका करम (रहम) ही होगा। सब कुछ 'होना' ही 'होना' है अनहोना कुछ नहीं है।जो हुआ है वह अनहोनी कैसे हो सकता है। यहां कबीर जीवन में जो भी घटित हो रहा है उसकी स्वीकृति की ओर संकेत करते हैं।
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